महाभारत काल के लगभग साढ़े पांच हज़ार वर्ष पहले एक महान आत्मा का अवतरण हुआ, जिसे हम भीम पौत्र बर्बरीक के नाम से जानते थे। बर्बरीक का जीवन भक्ति, बलिदान, और दिव्यता से जुड़ा हुआ है, जो हमें सच्ची श्रद्धा, त्याग और आत्मसमर्पण का संदेश देता है। उनकी कथा न केवल उनकी महानता को प्रकट करती है, बल्कि यह भी बताती है कि भगवान के प्रति सच्ची भक्ति और समर्पण जीवन को एक नया दिशा और उद्देश्य प्रदान करते हैं।
बर्बरीक की जन्म कथा और तपस्या
बर्बरीक, भीम के पौत्र और घटोत्कच के पुत्र थे।उनका जन्म एक महान योद्धा परिवार में हुआ था। उनका जन्म ऐसे समय में हुआ था जब धर्म की रक्षा के लिए महान योद्धाओं की आवश्यकता थी। बर्बरीक बचपन से ही अपनी शक्ति और कौशल में अद्वितीय थे लेकिन उनके भीतर सबसे बड़ी विशेषता थी.. भगवान के प्रति अडिग श्रद्धा और तपस्या।
बर्बरीक ने महीसागर संगम स्थित गुप्त क्षेत्र में नवदुर्गाओं की पूजा की और एक लंबी तपस्या की जिसके फलस्वरूप उन्हें दिव्य बल, तीन तीर और धनुष प्राप्त हुए। इन शक्तियों के साथ, बर्बरीक का इरादा था कि वह धर्म की रक्षा के लिए किसी भी युद्ध में भाग लेंगे, लेकिन उनके दिल में यह दृढ़ निश्चय था कि वह युद्ध में किसी एक पक्ष को नहीं, बल्कि हारने वाले की मदद करेंगे।
जब महाभारत के युद्ध का शंखनाद होने वाला था , तब बर्बरीक को ज्ञात हुआ और उन्होंने माता का आशीर्वाद ले युद्ध में भाग लेने का निर्णय लिया। उन्होंने सोचा कि जो पक्ष युद्ध में हार जाएगा, उसे वह सहायता देंगे लेकिन भगवान श्री कृष्ण ने यह समझ लिया कि अगर बर्बरीक ने ऐसा किया, तो युद्ध कभी समाप्त नहीं होगा।
श्री कृष्ण ने बर्बरीक को रोकने के लिए ब्राह्मण का रूप धारण किया और उनसे पूछा, “कहां जा रहे हो, वीर? क्या तुम जानते हो कि तुम किसका साथ देने जा रहे हो?” बर्बरीक ने अपनी नीयत बताई कि वह दोनों पक्षों की सहायता करेंगे।
तब भगवान श्री कृष्ण ने बर्बरीक से उनकी दिव्य शक्ति दिखाने को कहा। बर्बरीक ने एक ही तीर से पेड़ के सारे पत्तों को भेद दिया, सिवाय उस पत्ते के जो श्री कृष्ण के पैरों के नीचे दबा था। यह देखकर बर्बरीक ने शरणागत वत्सलता दिखाते हुए भगवान कृष्ण से कहा कि वह अपना पैर हटा लें, नहीं तो उनका पैर घायल हो सकता है। भगवान श्री कृष्ण ने अपना पैर हटा लिया और बर्बरीक से वरदान मांगा। बर्बरीक ने भगवान से कहा, “आप जो चाहें, वह मांग सकते हैं, मैं अपना वचन निभाऊंगा।” श्री कृष्ण ने उनसे मस्तक का दान मांग लिया।
बर्बरीक तनिक भी विचलित नहीं हुए परंतु उन्होंने श्रीकृष्ण को अपने वास्तविक रूप में दर्शन देने की बात की क्योंकि कोई भी साधारण व्यक्ति यह दान नहीं मांग सकता। तब श्रीकृष्ण अपने वास्तविक रूप में प्रकट हुए। उन्होंने महाबली, त्यागी, तपस्वी वीर बर्बरीक का मस्तक रणचंडिका को भेंट करने के लिए मांगा और साथ ही वरदान दिया कि कलयुग में तुम मेरे नाम से जाने जाओगे। मेरी ही शक्ति तुम में निहित होगी। देवगण तुम्हारे मस्तक की पूजा करेंगे जब तक यह पृथ्वी, नक्षत्र, चंद्रमा तथा सूर्य रहेंगे तब तक तुम, लोगों के द्वारा मेरे श्री श्याम रूप में पूजनीय रहोगे। मस्तक को अमृत से सींचाऔर अजर अमर कर दिया। मस्तक ने संपूर्ण महाभारत का युद्ध देखा एवं युद्ध के निर्णायक भी रहे। युद्ध के बाद महाबली बर्बरीक कृष्ण से आशीर्वाद लेकर अंतर्ध्यान हो गए।
खाटू श्याम का अवतरण
बहुत समय बाद, जब कलयुग का प्रारंभ हुआ और भक्तों का उद्धार करने की आवश्यकता महसूस हुई, तब भगवान श्री श्याम बर्बरीक के रूप में खाटू में चमत्कारी रूप से प्रकट हुए। एक दिन, खंडेला के राजा को यह समाचार मिला कि एक गाय रास्ते में खड़ी होकर दूध दे रही थी और वह दूध एक स्थान पर बह रहा था। जब ग्वाले ने यह देखा, तो वह राजा के पास गया और उसे पूरी घटना बताई। राजा ने इस दृश्य को ध्यान से देखा और भगवान श्री श्याम के दर्शन के लिए तत्पर हो गया।
राजा खंडेला को स्वप्न में भगवान श्री श्याम ने दर्शन दिए और कहा, “मैं वह श्याम देव हूं, जिनका शालिग्राम शिला इस स्थान पर है। यहां मेरी पूजा करो, और जो भक्त इस स्थान पर आएगा, उसका हर प्रकार से कल्याण होगा।”
राजा खंडेला ने शालिग्राम शिला को खुदाई करके विधिपूर्वक स्थापित किया और शास्त्रों के अनुसार पूजा-अर्चना प्रारंभ की। समय के साथ, खाटू श्याम का मंदिर एक प्रमुख तीर्थ स्थल बन गया। औरंगजेब के शासनकाल में मंदिर का विध्वंस हुआ फिर भी, खाटू श्याम का विग्रह पुनः स्थापित हुआ और आज भी वहां हर साल लाखों भक्त पूजा-अर्चना करने आते हैं।
जय श्री श्याम